उत्तराखंड

OPINION : ‘सारा उत्तराखंड हरदा संग’, यानी कांग्रेस में जिसकी डफली, उसी का राग

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देहरादून. 21 साल पहले उत्तर प्रदेश से अलग होकर उत्तरांचल राज्य बना और राज्य में कांग्रेस की कमान सौंपी गई, तब विधायक रही स्वर्गीय इंदिरा हृदयेश को. लेकिन वो देहरादून पहुंचकर कमान संभालतीं, इससे पहले बाज़ी पलट गई और हरीश रावत अध्यक्ष बन गए. 2002 में चुनाव हुए और इस बार मुख्यमंत्री हरीश रावत बनते, लेकिन बाज़ी हाथ लग गई स्वर्गीय एनडी तिवारी के. कांग्रेस में जो संघर्ष की स्थिति 21 साल पहले थी, वो आज भी नहीं बदली है. अब जबकि विधानसभा चुनाव में थोड़ा ही समय बचा है, ऐसे में कांग्रेस गुटबाज़ी से बाहर नहीं निकल पा रही है. एक कदम आगे, अब प्रदेश कांग्रेस और आलाकमान के बीच भी संघर्ष के संकेत हैं.

विधानसभा चुनाव 2017 में दो सीटों से हार गए हरीश रावत इस बार बाज़ी अपने हाथ में रखना चाहते हैं. इधर, इस साल इंदिरा हृदयेश की मृत्यु के बाद कांग्रेस में दो ध्रुव दिख रहे हैं. एक तरफ हरीश रावत हैं, तो दूसरी तरफ कभी उन्हीं के कैंप में रहे प्रीतम सिंह. रावत के साथ प्रदेश अध्यक्ष गणेश गोदियाल और विधायकों का एक ग्रुप है, तो दूसरी तरफ प्रीतम सिंह के साथ कभी रावत के खासमखास रहे नेता और कुछ अन्य विधायक शामिल हैं. कांग्रेस के एक और प्रमुख नेता हैं, किशोर उपाध्याय. 2014 से लेकर 2017 के चुनाव तक जब रावत मुख्यमंत्री थे, तब उपाध्याय प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष रहे. अब पिछले कुछ महीनों से उपाध्याय की राहें अलग हैं. वो न तो रावत के साथ ही खड़े दिख रहे हैं और न ही प्रीतम सिंह के साथ.

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अपने नये कैंपेन को लेकर हरीश रावत ने ट्वीट किया.

सारा उत्तराखंड हरदा संग!
पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत उत्तराखंड में कांग्रेस चुनाव कैंपेन कमेटी के प्रमुख भी हैं. 2022 में होने वाले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने आधिकारिक तौर पर कोई चेहरा लॉन्च नहीं किया है, लेकिन रावत के समर्थक कहते हैं कि सीनियर मोस्ट नेता और कैंपेन कमेटी की कमान संभालने के नाते उनको मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर देखा जाना चाहिए. हालांकि कांग्रेस में प्रीतम सिंह समेत कार्यकारी अध्यक्ष रंजीत रावत इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते.

नेता सवाल उठाते हैं कि अगर हरीश रावत इतने ही मज़बूत हैं, तो 2017 में वो दो विधानसभा सीटों से चुनाव कैसे हार गए? और कांग्रेस ने तब सबसे खराब प्रदर्शन क्यों किया? इसके जवाब में हरीश रावत के समर्थक कहते हैं कि हर समय एक सा नहीं होता. बीजेपी के मुकाबले अगर कोई कांग्रेस का नेता भीड़ जुटाने का माद्दा रखता है, तो वो हैं हरीश रावत. इस सबके बीच रावत समर्थकों ने सोमवार को देहरादून में नया कैंपेन लॉन्च किया, जिसमें नारा दिया गया सारा उत्तराखंड हरदा यानी हरीश रावत संग.

हरीश रावत के सुरों के बदलने का अर्थ?
दिलचस्प बात ये है कि कार्यक्रम कांग्रेस मुख्यालय में रखा गया था, पर प्रदेश अध्यक्ष समेत सारे बड़े नेता इस कार्यक्रम से दूर हो गए. गौरतलब है कि रावत, दलित नेता यशपाल आर्य के पार्टी में शामिल होने के बाद से ही दलित मुख्यमंत्री बनाने की बात करते रहे. पिछले कुछ दिनों में उन्होंने अपने बयान को थोड़ा मॉडिफाई किया और कहा कि दलित मुख्यमंत्री होगा ज़रूर, लेकिन कब? यह समय सीमा तय नही है.

बीजेपी से मुकाबला और उत्तराखंडियत का सवाल?
उत्तराखंड उन राज्यों में शामिल है, जहां कांग्रेस को संभावनाएं नज़र आती हैं. वहीं सत्ताधारी बीजेपी राज्य को किसी भी सूरत में अपने हाथ से नहीं निकलने देना चाहती. रावत कह चुके हैं, उत्तराखंड में कांग्रेस के लिए ‘करो या मरो’ की स्थिति है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुकाबले में कांग्रेस के पास कोई बड़ा चेहरा नहीं. ऐसे में, कांग्रेस के पास एक ही विकल्प है कि वो चुनाव की लड़ाई को उत्तराखंड के ही राजनेताओं के बीच समेट दे. शायद यही वजह है कि रावत आजकल ‘उत्तराखंडियत’ का नारा दे रहे हैं. जब बात राज्य के नेताओं की हो, तो हरीश रावत ‘भीड़ जुटाऊ’ नेताओं में गिने जाते हैं. ये भी एक वजह है कि रावत समर्थक खुद की डफली से खुद के राग छेड़ रहे हैं.

आपके शहर से (देहरादून)

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