यूपी का जातीय गणितः चुनावी इतिहास से समझिए कौन किसके साथ है?
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नई दिल्ली. अगले कुछ महीनों में देश की सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश में विधानसभा (UP Assembly Election) के चुनाव होंगे. ये चुनाव एक तरीके से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) की सरकार पर जनता के लिए कामों पर जनमत संग्रह होगा. वहीं, समाजवादी पार्टी, बसपा और कांग्रेस के लिए यह करो या मरो का मुकाबला होगा. ऐसे में सभी पार्टियों की कोशिश वोटरों को रिझाने की है. राज्य के सवर्णों की बात करें तो इनकी संख्या 19 फीसकी के आसपास है और इनमें ब्राह्मण सबसे ज्यादा प्रभावी हैं. पश्चिमी यूपी के वोटरों में इनकी संख्या 20 फीसदी की है, जबकि कुल आबादी 12 फीसदी के आसपास है. ब्राह्मण, मुस्लिम और दलित एक समय राज्य में कांग्रेस के कोर वोटर थे. लेकिन समय के साथ राज्य में सियासी समीकरण बदले और अब ये तीनों समूह अलग-अलग पार्टियों के वोटबैंक हैं.
ब्राह्मण फैक्टर
यूपी की सियासत में ब्राह्मण केंद्र में हैं. कांग्रेस के प्रति ब्राह्मणों के समर्थन को ऐसे समझा जा सकता है कि राज्य के सभी पांच ब्राह्मण मुख्यमंत्री कांग्रेस से रहे हैं. इनमें गोविंद वल्लभ पंत, राज्य के पहले मुख्यमंत्री थे. इनके अलावा कमलापति त्रिपाठी, हेमवती नंदन बहुगुणा, एनडी तिवारी और श्रीपति मिश्रा हैं. हालांकि 90 के दशक की शुरुआत में मंडल और कमंडल की राजनीति ने राज्य में बने बनाए समीकरणों को तोड़ दिया. राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर कांग्रेस की पकड़ कमजोर होती गई और इसकी वजह से ब्राह्मण वोटर भी पार्टी से दूर होते गए. सरकारी नौकरियों में आरक्षण, पिछड़ों के उभार के चलते ब्राह्मण वोटरों ने एक दूसरी पार्टी को अपनाया और राम मंदिर आंदोलन के सहारे आगे बढ़ रही बीजेपी को चुना. ब्राह्मणों के समर्थन को देखते हुए बीजेपी को सियासी गलियारों में ब्राह्मण-बनिया पार्टी का तमगा भी मिला. ये दोनों समुदाय बीजेपी के कोर वोटर थे.
हालांकि बीजेपी के साथ आने के बावजूद ब्राह्मणों को उतनी तवज्जो नहीं मिली और शीर्ष पदों पर और सत्ता में भागीदारी की इच्छा अधूरी रह गई. बीजेपी अपना जनाधार बढ़ाने के लिए व्याकुल थी और उसने कल्याण सिंह, राम प्रकाश गुप्ता और बाद में राजनाथ सिंह जैसे ठाकुर नेताओं को चुना. राजनाथ सिंह के मुख्यमंत्री के तौर पर कार्यकाल के दौरान बीजेपी के साथ ब्राह्मणों का रिश्ता सहज नहीं रहा.
दूसरी ओर दलित वोटरों के सहारे मायावती यूपी की राजनीति में धूमकेतु की तरह उभरीं और उन्होंने ब्राह्मणों की बेचैनी को सबसे पहले भांपा, जिन्हें सत्ता में हिस्सेदारी की लालसा थी. ऐसे में दौर में बसपा ने ब्राह्मण-दलित एकता का नारा दिया और सियासी और सामाजिक तौर पर अलग-थलग पड़ा ब्राह्मण वोटर बीएसपी के संग हो लिया.
यूपी की सियासत में ब्राह्मण-दलित गठजोड़ (वर्गीय और आर्थिकी का अंतर) चौंकाने वाला था. लेकिन, इस गठजोड़ के सहारे बसपा ने यूपी की राजनीति में उलटफेर कर दिया और 2007 के चुनावों में जीत हासिल की. मायावती को सत्ता मिली और ब्राह्मणों को लंबे समय से प्रतीक्षित सत्ता में हिस्सेदारी.
लोकनीति-सीएसडीएस सर्वे के मुताबिक ब्राह्मण वोटरों में से सिर्फ 17 फीसदी ने बसपा के उम्मीदवारों को वोट किया था, लेकिन बसपा के इस दांव ने राज्य की सियासत समीकरण को बदल दिया.
403 सदस्यों वाली यूपी विधानसभा में साल 2002 में बसपा के पास सिर्फ 98 विधायक थे, लेकिन 2007 में ब्राह्मणों के सहयोग से पार्टी 206 सीटों तक पहुंचने में कामयाब रही. पार्टी को वोट शेयर 2002 में 23.06 फीसदी था, जोकि 2007 में बढ़कर 30.43 फीसदी हो गया. वहीं दूसरी पार्टियों के वोट शेयर में गिरावट दर्ज की गई. EPW की रिपोर्ट के मुताबिक चुनाव में मायावती ने 86 ब्राह्मणों को टिकट दिया था.
लोकनीति-सीएसडीएस सर्वे के मुताबिक हिंदुत्व आधारित आक्रामक चुनावी अभियानों ने एक बार फिर ब्राह्मण का रुख बीजेपी की तरफ मोड़ दिया. 2014 के लोकसभा चुनाव में 72 फीसदी ब्राह्मणों ने बीजेपी को वोट किया. ये आंकड़ा 2017 के विधानसभा चुनावों में बढ़कर 80 फीसदी हो गया और 2019 के चुनाव में और ज्यादा बढ़कर 82 फीसदी हो गया. इसी दम पर नरेंद्र मोदी दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने में कामयाब रहे.
यूपी विधानसभा चुनाव अब ज्यादा दूर नहीं है. राजनीतिक पार्टियों ब्राह्मण वोटर को लुभाने के लिए हरसंभव कोशिश कर रही हैं. कहा तो यह भी जा रहा है कि सत्ताधारी पार्टी में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिलने के चलते ब्राह्मण वोटर नाराज है और यूपी की सत्ता में ठाकुरों की वजह से उन्हें साइडलाइन किया गया है.
दलित फॉर्मूला
यूपी की आबादी में पिछड़ों की संख्या 41 फीसदी के आसपास है. इनमें सबसे ज्यादा हिस्सा यादवों का है. माना जाता है कि यूपी में यादवों की संख्या 10 से 12 फीसदी के करीब है. आजादी के बाद ब्राह्मणों की तरह यादवों ने भी कांग्रेस को वोट किया. हालांकि यादव लेफ्ट और सोशलिस्ट पार्टियों के साथ भी रहे. लेकिन मंडल आंदोलन के दौरान यादव जनता पार्टी के साथ रहे.
1992 में मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी का गठन किया और यादव उनके साथ हो लिए. सपा के गठन के बाद से यादव का समर्थन यूपी में किसी और पार्टी को नहीं मिली. लेकिन 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में यादव वोटर का एक बड़ा हिस्सा बीजेपी को गया. लोकनीति के मुताबिक 2014 में 27 प्रतिशत और 2019 में 23 फीसदी यादव वोटरों ने बीजेपी को वोट किया.
दलित वोटरों की बात करें तो इसके दो मुख्य अंग है – जाटव और गैर-जाटव, जिनमें पासी भी हैं. इन समूह ने भी 1977 तक कांग्रेस पार्टी को वोट किया. बाद में ये कांग्रेस और सोशलिस्ट पार्टियों को वोट करते रहे. खासतौर पर जनता पार्टी और बाद में जनता दल को. बसपा के उभार के बाद इन समूहों की वोटिंग प्राथमिकता दलित पार्टी ही रही है. 2011 की जनगणना के मुताबिक यूपी की आबादी में दलितों की संख्या 20 फीसदी के आसपास है. बसपा में जाटवों को मिलती प्राथमिकता ने दलित वोटरों में बिखराव पैदा किया और 2007 के विधानसभा चुनाव के बाद यह बढ़ता गया. कोई आश्चर्य नहीं है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में गैर जाटव 45 फीसदी वोटरों ने बीजेपी को मतदान किया. 2019 के चुनाव में यह आंकड़ा बढ़कर 48 प्रतिशत हो गया.
दूसरी ओर बसपा को जाटव का भारी समर्थन मिलता रहा. 2014 के लोकसभा चुनाव में 68 फीसदी जाटवों ने बसपा को वोट किया. 2019 के चुनाव में 75 फीसदी जाटवों ने बसपा को वोट दिया, जब पार्टी सपा के साथ महागठबंधन में थी और एनडीए का विरोध कर रही थी. लोकनीति सर्वे के मुताबिक 2017 के विधानसभा चुनाव में 86.7 फीसदी जाटवों ने बसपा को वोट किया था.
यूपी की आबादी में ठाकुरों की जनसंख्या 7 फीसदी के आसपास है. सियासत में ब्राह्मणों के साथ ठाकुरों का छत्तीस का आंकड़ा है. शुरुआत में ठाकुर भी कांग्रेस को वोट देते थे, लेकिन समय के साथ इनकी प्रतिबद्धता बदलती गई और नया स्टॉपेज बीजेपी है.
ठाकुरों की राजनीति में प्रभाव को ऐसे समझा जा सकता है कि इस जाति वर्ग ने वीपी सिंह (1989) और चंद्रशेखर (1990) के रूप में देश को दो प्रधानमंत्री दिए हैं. वहीं योगी आदित्यनाथ को मिलाकर पांच मुख्यमंत्री भी रहे हैं.
हालांकि एक समय ठाकुर समुदाय का समर्थन समाजवादी पार्टी के साथ भी था, जब मुलायम सिंह यादव की अगुवाई वाली सपा में अमर सिंह अपना दबदबा रखते थे. लेकिन नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ के उभार से ठाकुर वोटर एक बार फिर मजबूती के साथ बीजेपी के साथ साथ आ गया. लोकनीति सर्वे के मुताबिक 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में ठाकुर समुदाय के 77 और 89 फीसदी मतदाताओं का समर्थन क्रमशः बीजेपी को मिला.
गैर यादव ओबीसी का उभार
गैर यादव ओबीसी का उभार राज्य में सबसे देरी से हुआ है. यूपी की आबादी में इनकी संख्या 35 फीसदी के आसपास है. कुर्मी, मौर्या, कश्यप, सैनी, साहू जैसी जातियों वाला समूह अकेले दम पर किसी भी पार्टी को चुनाव जितवा और हरवा सकता है.
मंडल आंदोलन के बाद गैर यादव वोटरों ने सोशलिस्ट पार्टी का समर्थन किया. खासतौर पर सपा का. लेकिन अखिलेश यादव की अगुवाई वाली सपा में यादव को मिली तवज्जो ने गैर-यादव वोटरों में बिखराव को जन्म दिया और बीजेपी ने इनकी निराशा को खूब भुनाया. गैर यादव ओबीसी ने खुलकर पिछले चुनावों में बीजेपी का समर्थन किया है.
पीएम नरेंद्र मोदी का ताल्लुक भी ओबीसी समुदाय से है और इस कारण से भी गैर यादव ओबीसी का समर्थन बीजेपी को मिला है. एनडीए सरकार ने पोस्ट और पॉलिसी के साथ गैर-ओबीसी मतदाताओं को भी खूब रिझाया है. 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने 27 गैर यादव ओबीसी उम्मीदवारों को टिकट दिया. जोकि महागठबंधन के मुकाबले 9 ज्यादा थे.
लोकनीति सर्वे के मुताबिक 61 फीसदी गैर यादव ओबीसी ने 2014 के लोकसभा चुनाव में एनडीए का समर्थन किया. हालांकि 2019 के चुनाव में ये आंकड़ा बढ़कर 72 प्रतिशत हो गया. 2014 के चुनाव में बीजेपी का वोट शेयर जहां 42.6 फीसदी था, वहीं पिछले लोकसभा चुनाव में यह बढ़कर 49.9 फीसदी हो गया. अगर गैर यादव ओबीसी में प्रभावी जातियों की बात करें तो 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में कुर्मी और कोइरी जाति के 53 और 80 फीसदी वोटरों ने साझे तौर पर एनडीए का समर्थन किया.
किसानों आंदोलन की रीढ़ बने जाटों की संख्या उत्तर प्रदेश में 2 फीसदी के आसपास है. ज्यादातर खेती से जुड़े हुए हैं और इस जाति वर्ग का संबंध चौधरी चरण सिंह और उनकी राजनीति से भी है. 1967 में चौधरी चरण सिंह के कांग्रेस छोड़ने के बाद जाट वोटरों को एक बड़ा हिस्सा चौधरी चरण सिंह के साथ चला गया. चौधरी चरण सिंह ने पहले भारतीय क्रांति दल का गठन किया और बाद में यह भारतीय लोक दल हो गया.
चौधरी चरण सिंह के जनता पार्टी में शामिल होने के बाद जाटों का समर्थन सोशलिस्ट पार्टियों को भी रहा. हालांकि राम मंदिर आंदोलन ने जाटों को चौधरी परिवार से दूर कर दिया और इस आधार वोट में बड़ी सेंध लगी. लेकिन ज्यादातर जाट चौधरी परिवार के साथ रहे. चरण सिंह के बेटे अजीत सिंह को भी जाटों का अच्छा समर्थन मिला. चौधरी चरण सिंह और अजीत सिंह की राजनीति जाट मुस्लिम एकता पर आधारित रही है और 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों ने जाट-मुस्लिम एकता में टूट पैदा कर दी और आरएलडी की सियासत पर इसका बड़ा असर हुआ.
हिंदू और मुस्लिम साम्प्रदायिक दंगों ने पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ध्रुवीकरण पैदा कर दिया. इसका परिणाम ये हुआ जाट वोटर बीजेपी के साथ चला गया. लोकनीति-सीएसडीएस सर्वे के मुताबिक 2012 के विधानसभा चुनावों में सिर्फ 7 फीसदी जाटों ने बीजेपी का समर्थन किया, लेकिन दो साल बाद 2014 के लोकसभा चुनाव में जाटों का 77 फीसदी वोट बीजेपी को मिला. वहीं 2019 के लोकसभा चुनाव में जाटों का 91 प्रतिशत वोट बीजेपी की झोली में आया.
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