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Analysis : आखिर कांग्रेस को कमजोर कहकर ममता दीदी चाहती क्या हैं

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ममता बनर्जी पहले दिल्ली आईं और उन्होंने कहा कि क्या ये जरूरी है कि हर बार वो आकर सोनिया गांधी से मिलें ही. इसके बाद मुंबई में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के सुप्रीमो शरद पवार से मुलाकात के बाद कहा कि अब कोई यूपीए नहीं है. इन दिनों वो तेजी से दो काम कर रही हैं. विपक्षी नेताओं से मिल रही हैं और कांग्रेस के नेताओं को तोड़कर तृणमूल कांग्रेस में शामिल कर रही हैं. तृणमूल की प्रमुख और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता आखिर चाहती क्या हैं. क्या वो कांग्रेस को दबाव में लाना चाहती हैं या किसी सौदे के लिए खुद को कहीं ज्यादा ताकतवर दिखा रही हैं.

पवार ने भी अपनी मुलाकात के बाद ना तो ममता के बयान का खंडन किया और ना ही सहमति जाहिर की लेकिन उनके स्वागत में मुंबई में सबकुछ किया. एनसीपी के नेता, मंत्रियों को उनसे मिलवाया.

ममता पश्चिम बंगाल में भारी बहुमत से जीत के बाद पूरे आत्मविश्वास में हैं. उन्हें लग रहा है कि इस जीत के बाद जिस तरह से उन्होंने राज्य में बीजेपी को पटखनी दी है, उसके बाद वो देश में विपक्ष की सबसे ताकतवर नेता के तौर पर उभरी हैं. इस समय उनका कद विपक्षी दिग्गज नेताओं में सबसे बड़ा है. वो दावे कर रही हैं कि बीजेपी को हराना कतई मुश्किल नहीं है बल्कि बहुत आसान है.अगर सभी क्षेत्रीय पार्टियां मिल जाएं तो ऐसा करके दिखाया जा सकता है.

क्या पक रहा है ममता और पवार के बीच
ममता की पवार से मुलाकात की बात कुछ इसी ओर इशारा करता है कि दोनों के बीच कुछ ना कुछ पक रहा है. वो नया गैर बीजेपी फ्रंट बनाने की जुगत में हैं, जिसमें कांग्रेस नहीं हो. इसमें कोई शक नहीं कि आमतौर पर क्षेत्रीय पार्टियां राष्ट्रीय राजनीति में हावी तो रहना चाहती हैं और वो चाहती हैं कि बीजेपी के खिलाफ देश को नए गठबंधन का विकल्प दें. वो ऐसे किसी भी अवसर की तलाश में रही हैं.

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NCP सुप्रीमो शरद पवार के साथ ममता बनर्जी की मुलाकात को लेकर सियासी अकटलों का दौर तेज है. (तस्वीर-AITC Twitter)

क्या कांग्रेस के बगैर कोई बीजेपी के खिलाफ गठबंधन बन पाएगा
लेकिन लगता नहीं कि तमाम क्षेत्रीय दल मिलकर कोई नया इस तरह का गठबंधन बनाने में कारगर हो पाएंगे, इसमें कोई शक नहीं कि वर्ष 2014 के बाद से यूं भी यूपीए का अस्तित्व खत्म हो गया है. यूपीए में शामिल सभी दल अब अपनी राग और अपनी ढपली वाले सिद्धांत पर चल रहे हैं. जिन दलों का गठजोड़ कांग्रेस के साथ था, वो भी अब उससे छिटकते से लग रहे हैं. हालांकि कांग्रेस अब भी कुछ राज्यों में गठजोड़ सरकार में है. जिसमें तमिलनाडु, झारखंड और महाराष्ट्र शामिल हैं.

कांग्रेस गठजोड़ शासित राज्य
तमिलनाडु में कांग्रेस का गठजोड़ डीएमके से है तो झारखंड में जेएमएम के साथ वहीं महाराष्ट्र में पार्टी शिव सेना और एनसीपी के साथ मिलकर सरकार चला रही है. हालांकि इन तीनों ही राज्यों में कांग्रेस जूनियर पार्टनर की भूमिका में है. लेकिन इसमें बाद भी उसकी महत्वपूर्ण भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता.
वैसे तो कांग्रेस बिहार में आरजेडी के साथ है लेकिन ये जरूर है कि अब वहां कांग्रेस और आरजेडी के बीच खटपट या अलग राह चलने की भी खबरें आ रही हैं. उन्होंने यहां उपचुनाव अलग अलग लड़े हैं. तारापुर में उपचुनाव में दोनों अलग लड़ीं और हार गईं. अगर साथ मिलकर चुनाव लड़तीं तो शायद जेडी यू के खिलाफ तस्वीर और होती.

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नवीन पटनायक (Naveen Patnaik) , सी चंद्रशेखर और जगन रेड्डी जैसे क्षेत्रीय क्षत्रप अतीत में बीजेपी की मदद भी कर चुके हैं. वो अभी अपने पत्ते नहीं खोलने वाले.  वो किधर जाएंगे इसका पता वर्ष 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले ही लगेगा. फिलहाल वो ममता के किसी गठबंधन की कोशिश में शायद ही साथ आएं. (प्रतीकात्मक तस्वीर: Wikimedia Commons)

इन राज्यों के क्षेत्रीय क्षत्रप किसी भी ओर जा सकते हैं
तेलंगाना, आंध्र और ओडिशा में क्षेत्रीय दलों की सरकारें हैं और इन तीनों राज्यों में सरकार चलाने वाले के चंद्रशेखर की टीआरएस, आंध्र में जगन रेड्डी की कांग्रेस जगन और ओडिशा में नवीन पटनायक की नजदीकियां बीजेपी के साथ रही हैं. वो कई मौकों पर संसद में बीजेपी के बचाव में आ चुके हैं. तीनों ही नेताओं का बीजेपी के प्रति साफ्ट कार्नर रहा है या उसके साथ एनडीए गठबंधन में भी रहे हैं. हालांकि आने वाले लोकसभा चुनावों में वो किधर जाएंगे, इसका पत्ता ना तो उन्होंने खोला और ना ही वो फिलहाल खोलेंगे, समय के साथ ही वो तय करेंगे कि वो बीजेपी के गठबंधन में जाएंगे या उसके खिलाफ बनने वाले किसी गठबंधन में.

आगामी विधानसभा चुनाव भी तस्वीर बदलेंगे
ऐसा लगता है कि बेशक कोशिश अभी शुरू हो रही हों और ममता इसके लिए कुछ ज्यादा सक्रिय हों लेकिन असली सूरत वर्ष 2023 या 2024 तक सामने आएगी. इस बीच देश में बहुत कुछ सियासी बदलाव देखने को मिल सकते हैं. अगले साल यूपी, पंजाब और कई राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव भी इस मामले में गौरतलब रहेंगे.

ममता अभी से क्यों सक्रिय हो गईं
ऐसे में ये सवाल लाजिमी है कि अगर लोकसभा के अगले चुनाव करीब 03 साल दूर हैं तो ममता अभी से क्यों सक्रिय हो गई हैं. ममता दरअसल कांग्रेस के साथ सौदेबाजी की कोशिश कर रही हैं. ये संदेश देना चाहती हैं कि अब कांग्रेस की वो ताकत रही नहीं लिहाजा कांग्रेस को अब बड़े भाई के रोल से किनारे होना होगा. इस रोल में दूसरी पार्टियां रहेंगी. वैसे ममता की ये इच्छा हो सकती है कि वो वर्ष 2024 तक कांग्रेस को विपक्षी एकता से कमजोर साबित कर दें. फिर गठजोड़ का नेतृत्व खुद करें और कांग्रेस पर अपनी शर्तें थोपें.

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पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी खुद को अब राष्ट्रीय राजनीति में स्थापित करने की कोशिश तो कर ही रही हैं. उन्हें लगता है कि मौजूदा राजनीति में वो खुद को नरेंद्र मोदी के खिलाफ खड़ा कर सकती हैं. अपने इसी अभियान में वो सक्रिय हो गई हैं. प्रशांत किशोर भी पर्दे के पीछे और सामने से उन्हें हवा देते नजर आ रहे हैं.

कितने क्षेत्रीय दल ममता की अगुवाई मंजूर करेंगे
हालांकि ये इतना आसान नहीं होने वाला, क्योंकि ये सभी को मालूम है कि बीजेपी के बाद अगर कोई पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर मौजूद है और कुछ हद तक अपने असर को बरकरार रख सकी है तो कांग्रेस ही है. बेशक कांग्रेस इस समय सबसे कमजोर स्थिति में है लेकिन तब उसके बगैर बीजेपी के खिलाफ किसी विपक्षी गठजोड़ का कोई मतलब नहीं है. दूसरे ये भी संभव है कि ममता की अगुवाई में आना कितने क्षेत्रीय दल कबूल करेंगे.

क्षेत्रीय क्षत्रपों की कांग्रेस से दिक्कत क्या है
ये बात तमाम क्षेत्रीय क्षत्रप भी जानते हैं लेकिन ये सही है कि सभी कांग्रेस को कमजोर भी देखना चाहते हैं और उसे दबाव में भी लाना चाहते हैं ताकि वो उनकी शर्तों के अनुसार चलने पर सहमत हो. क्षेत्रीय क्षत्रपों को मुख्य तौर पर राहुल गांधी की अगुवाई को लेकर दिक्कत हो. जो पहले भी सामने आ चुकी है कि अगर बीजेपी के खिलाफ कोई गठबंधन बनता है तो क्षेत्रीय पार्टियों के दिग्गज नेता उसमें राहुल को नेता मानने पर तैयार नहीं होंगे. खुद कांग्रेस भी फिलहाल इन्हीं सब बातों को लेकर अंर्तद्वंद्व से गुजर रही है.
क्या राहुल बनाम मोदी का मतलब मोदी का फायदा
ये बात भी दीगर है कि जिस तरह से भारतीय राजनीति में राहुल गांधी को लेकर एक इमेज बन गई है, उसमें अगर कोई चुनाव नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गांधी होता है तो इसका फायदा मोदी को सीधे सीधे मिलेगा. बीजेपी पर मोदी की पकड़ उतनी ही ज्यादा मजबूत हो जाएगी.

यूपी में समाजवादी पार्टी इस बार कांग्रेस के साथ गठजोड़ करके चुनाव नहीं लड़ रही. क्योंकि यहां भी मोदी बनाम राहुल वाला एंगल बनने देने से वो बचना चाहती है. इसकी बजाए यूपी में समाजवादी पार्टी स्थानीय मुद्दों पर चुनाव लड़ रही है. कुछ ऐसा ही बिहार में आरएलडी के साथ हो सकता है.

क्या कांग्रेस की कमजोरी ममता अपना अवसर देख रही हैं
ममता को ये मालूम है कि किस तरह फिलहाल कांग्रेस के सहयोगी भी उससे छिटक रहे हैं या छिटकने का मन बना रहे हैं तो ऐसे में ममता इस समय को अपने लिए एक अवसर की तरह देख रही हैं. ममता का बड़ा राजनीतिक करियर है. वो ये जाहिर भी करने लगी हैं कि मौजूदा विपक्षी नेताओं में उनका कद अब कहीं बड़ा है. वो देशभर में घूम करके कुछ वैसा ही करने की सोच रही हैं जैसा मोदी ने वर्ष 2014 चुनावों के पहले किया था.

कांग्रेस को कमजोर कहना आसान है लेकिन साबित करना मुश्किल
पवार हमेशा से अवसर की तलाश में रहे हैं. तो ममता को लग रहा है कि जहां जहां कांग्रेस कमजोर हो रही है या उसका जनाधार दरक सकता है, वहां वो पैर पसारने की तैयारी में लगी हैं. इसमें गोवा और पूर्वोत्तर के राज्य शामिल हैं. गोवा, असम, त्रिपुरा और मेघालय में उन्होंने असंतुष्ट कांग्रेसियों का ही सहारा भी लिया है. हालांकि ये बात सही है कि खुद को कांग्रेस से मजबूत कह देना और कांग्रेस को खारिज कर देना आसान है लेकिन साबित करना मुश्किल. कम से कम हिंदी प्रदेशों में अब भी ममता के लिए अपना असर दिखा पाना टेढ़ी खीर है.

कांग्रेस से निकलने नेता क्षेत्रीय स्तर तक प्रभाव बना सके हैं
इसमें कोई शक नहीं कि आजादी के बाद से कांग्रेस में लगातार टूट फूट होती रही है. उससे निकले नेता क्षेत्रीय स्तर पर तो सफल रहे हैं लेकिन वो कभी राष्ट्रीय स्तर अपनी छाप नहीं छोड़ पाए हैं. हालांकि ममता की नजर कांग्रेस से ज्यादा मोदी को चुनौती देने या उनके खिलाफ अपना कद बड़ा करने में ज्यादा है लेकिन सवाल यही है कि क्या वो ऐसा कर पाएंगी,क्योंकि उनकी इस राह में बाधा ना केवल ज्यादा बल्कि बड़ी भी हैं.

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